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आत्मनिर्भर बनने की राह में…

आत्मनिर्भर बनने की
राह में…

✍️रेणु ठाकुर

मैं सजती हूं संवरती हूं
हर पल दिल खोलकर जीतीं हूं
क्योंकि मैं खुद को
विकलांग नहीं समझतीं हूं
क्यों समझू मैं खुद को विकलांग
जब दिमाग है मेरा सभी
सामान्य लोगों की तरह सामान्य
विकलांग वह नहीं होता
जो लाचार शरीर या कमजोर
मस्तिष्क के साथ इस
दुनिया में आता है
विकलांग तो वह होता है जो
स्वस्थ शरीर एवं मजबूत मन
के बावजूद आजीवन बेरोजगारी
में ही गुज़ार देता हैं
इंसान अपनी सोच से
खुद को विकलांग बनाता हैं
क्योंकि दुनिया पर बोझ
बनने से बचने और आत्मनिर्भर
बनने के जुनून में एक विकलांग
व्यक्ति वह कर जाता है जो एक
सामान्य व्यक्ति सोच भी नहीं पता है
शरीर के संपूर्ण अंगों की क्या आवश्यकता
जब एक पैर वाला इंसान भी
माउंट एवरेस्ट पर चढ़ जाता है
घमंड नहीं मुझे पर गर्व हैं
अपनी काबिलियत पर जो
हिम्मत करके छोटी ही सही पर पहुंची हूं
आत्मनिर्भर बनने के बड़े से
पड़ाव के एक छोटे से मुकाम पर
कहना चाहूंगी दुनिया वालों से
ना समझे एक विकलांग को सिर्फ
विकलांग क्योंकि एक विकलांग
व्यक्ति ही वहां से शुरुआत
करने की हिम्मत करता हैं
जहां से एक सामान्य व्यक्ति
भी मान जाता हैं
अपनी किस्मत से हार
इसलिए कभी-कभी खुश होती हूं
कि अच्छा है कि मैं विकलांग हूं
शायद इसलिए थोड़ी सी ही सही
पर आत्मनिर्भर बनने की
राह में आज मैं कामयाब हूं

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