मातृभाषा में शिक्षा – एक बाल अधिकार
मातृभाषा में शिक्षा – एक बाल अधिकार
(हिंदी दिवस पर विशेष)
डॉ. सुरेश कुमार गोहे
इतिहास विभाग, हंसराज महाविद्यालय एवं
उप अधिष्ठाता, छात्र कल्याण, दिल्ली विश्वविद्यालय
शब्द परिधि बैतूल / किसी भी समाज या राष्ट्र की आत्मा उसकी भाषा में बसती है। भाषा केवल शब्दों का समूह नहीं होती, बल्कि यह संस्कृति, परंपरा और सामूहिक चेतना की अभिव्यक्ति होती है। शिक्षा वह साधन है जिसके माध्यम से समाज की अगली पीढ़ी को ज्ञान, मूल्य और कौशल हस्तांतरित किए जाते हैं। ऐसे में यदि यह शिक्षा बच्चे की स्वभाषा में न दी जाए, तो यह केवल एक भूल नहीं, बल्कि एक गंभीर अपराध है।बच्चे के बौद्धिक और मानसिक विकास में मातृभाषा की भूमिका सर्वोपरि है। मनोवैज्ञानिक शोध बताते हैं कि बच्चा अपनी मातृभाषा में ही सबसे तेजी से सीखता और समझता है। जब शिक्षा किसी विदेशी भाषा में दी जाती है, तो बच्चे को विषय समझने के साथ-साथ भाषा समझने का भी अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ता है। इससे उसकी जिज्ञासा, आत्मविश्वास और रचनात्मकता प्रभावित होती है। यह बच्चे की प्राकृतिक क्षमता का दमन है, जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता।भारत जैसे बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश में यह चुनौती और भी बड़ी हो जाती है। अंग्रेज़ी जैसी विदेशी भाषा को आधुनिकता और अवसरों की कुंजी मान लिया गया है। अभिभावक भी अक्सर बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाना ‘सफलता की गारंटी’ मानते हैं। लेकिन इस प्रवृत्ति ने हमारी स्वभाषाओं को हाशिए पर धकेल दिया है। नतीजा यह है कि बच्चे अपनी संस्कृति, जड़ों और सामाजिक पहचान से कटने लगे हैं।महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक और रविंद्रनाथ ठाकुर जैसे चिंतकों ने भी बार-बार यह स्पष्ट किया कि मातृभाषा में शिक्षा ही सच्ची शिक्षा है। विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ाई करना उनके अनुसार ‘बौद्धिक गुलामी’ की निशानी है। यदि हम स्वभाषा को शिक्षा का आधार नहीं बनाते, तो हम अपनी ही आने वाली पीढ़ियों को मानसिक पराधीनता की ओर धकेलते हैं। यह न केवल बच्चों के साथ अन्याय है, बल्कि पूरे समाज के भविष्य के साथ अपराध है।स्वभाषा में शिक्षा देने का अर्थ केवल भावनात्मक जुड़ाव नहीं है, बल्कि यह लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण व्यवस्था की नींव है। यदि विज्ञान, तकनीक, साहित्य और प्रशासन की शिक्षा स्वभाषा में उपलब्ध होगी, तो समाज का हर वर्ग ज्ञान और अवसरों तक समान रूप से पहुँच सकेगा। अन्यथा शिक्षा एक विशेष वर्ग तक सीमित रहेगी और असमानता बढ़ेगी।निष्कर्षतः, स्वभाषा में शिक्षा न देना केवल सांस्कृतिक हानि नहीं है, बल्कि यह सामाजिक और नैतिक अपराध है। यह अपराध उस राष्ट्र की आत्मा के खिलाफ है जो अपनी पहचान और अस्मिता खोने लगता है। यदि भारत को आत्मनिर्भर और सशक्त बनाना है, तो शिक्षा की बुनियाद स्वभाषा पर ही रखनी होगी। तभी हम कह सकेंगे कि हमने अपनी भावी पीढ़ी के साथ न्याय किया है।