शासन – प्रशासन को भिखमंगई और भिक्षावृत्ति में अन्तर समझना होगा: मोहन नागर
आज गोंदली समाज के कुछ बन्धु मेरे पास आये और उन्होंने बताया कि बैतूल जिले में भिक्षावृत्ति पर प्रतिबन्ध लगा देने से वे बेरोजगार हो गये हैं । जबकि वे अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए भिक्षावृत्ति करते हैं ।
जिला कलेक्टर द्वारा भिक्षावृत्ति पर प्रतिबन्ध लगाना कानूनी दृष्टि से उचित है किन्तु शासन और प्रशासन को #भिखमंगई और भिक्षावृत्ति में अन्तर समझना होगा ।
#भिक्षावृत्ति’ की भारतवर्ष में एक सुदीर्घ परम्परा रही है। ‘भिक्षाटन’ को अन्य ढेरों वृत्तियों की तरह एक वृत्ति यानि जीवनयापन का साधन माना गया है। वे समाज में मनोरंजनकर्ता, कलाकार (गीत-संगीत-नृत्य-अभिनय, आदि), घर-पहुँच ग्रंथालय, सूचना प्रदानकर्ता, गाँव, पंचायतों के अतिविशिष्ट मामलों के समाधानकर्ता, अपरिग्रह, निर्लिप्तता, आदि के माध्यम से आध्यात्मिक जीवनशैली के प्रेरक, जाति-पुराण वाचक, वंशावली लेखक-गायक, विरुदावली गायक, आदि कई भूमिकाएँ निभाते हैं। इन महत्वपूर्ण भूमिकाओं के कारण उन्हें समाज में व्यवस्थित किया गया था।
यह ‘भिक्षावृत्ति’ आजकल शहरी क्षेत्रों में पनपी ‘भिखमँगई’ या ‘भीख’ आदि से एकदम अलग परिकल्पना है। ‘भिखमँगई’ या ‘भीख’ बहुत मजबूरी में किया जाने वाला काम है। जब हमारा वृहत समाज, लोगों को किसी भी तरह का रोजगार उपलब्ध कराने में अक्षम होता है, तब वे ‘भीख’ माँगने के लिए मजबूर हो जाते हैं। कुछ जगहों पर यह एक ‘संगठित अपराध’ का हिस्सा भी बना जाता है। इसकी जड़ में भारत का अंग्रेजी शासन और उसके बाद से चली आ रहा ‘आधुनिक व्यवस्था तन्त्र’ रहा है। ‘भिक्षावृत्ति’ का ‘भिखमँगई’ की दिशा में बढ़ने का सबसे शुरुआती कारण अँग्रेजों द्वारा सन 1872 में लागू किया गया ‘अपराधी जनजातीय अधिनियम’ था, जहाँ भिक्षावृत्ति की बहुत सी जातियों को समाज में उनकी महत्वपूर्ण भूमिकाओं के कारण अपराधी घोषित कर दिया गया था। किसी अन्य रोजगार में व्यवस्थित न होने के कारण वे या तो जंगलों की ओर चले गए या समाज में ‘भिखमँगई’ की ओर अग्रसर हुये।
इसके विपरीत ‘भिक्षावृत्ति’ की समाज की बहुत ही महत्वपूर्ण, सुसम्पन्न एवं सुदृढ़ परम्परा रही है, जिसके अंतर्गत समाज में ढेरों लोगों को विभिन्न महत्वपूर्ण भूमिकाओं में व्यवस्थित किया गया था। वे आजकल की तरह किसी मजबूरी में यह कार्य करने को बाध्य नहीं थे, बल्कि पीढ़ीगत इन कार्यों को पीढ़ियों से करते आ रहे थे। इन लोगों में परम्परागत साँप, बैल, बन्दर, रीछ, गधे, घोड़े, आदि के माध्यम से विभिन्न तरह की जानकारी देने वाले, सुबह-सुबह नींद से जगाने वाले, सुबह से ही विभिन्न तरह के गीत-संगीत सुनाने वाले लोगों से लेकर बहरूपिये, नर्तक, कठपुतली कलाकार और कई तरह के कहानी कार, चारण, भाट, वंशावली-लेखक, जाति पुराण वाचक/गायक, हरबोले, दोजनिया, वसुदेवा, आदि शामिल थे। वर्तमान की कई प्रसिद्ध भारतीय प्रदर्शन परम्पराएँ – जैसे माँगनियार, लाँगा, पंडवानी, कालबेलिया, बाउल, नाचा, पटचित्र पेंटिंग, आदि इसी भिक्षावृत्ति परम्परा से निकली हैं।
आज भिक्षावृत्ति के कुछ समुदाय ‘पारम्परिक कलाकारों’ की सामान्य श्रेणी का हिस्सा बन गए हैं, पर अधिकांश अन्य विलुप्ति की कगार पर हैं। इन लोगों की अपनी स्वयं की स्मृति भी लगातार क्षीण होती जा रही है। उन्हें ‘भिखारी’ या इस तरह के अन्य नामों का ठप्पा लगा दिया गया है जो कि और कुछ नहीं बल्कि आधुनिक व्यवस्था तन्त्र में ‘भिक्षा’ की गलत व्याख्या के कारण ही पैदा हुआ है ।
(जीविकाश्रम जबलपुर द्वारा पिछले दिसम्बर माह किये गये भिक्षावृत्ति महोत्सव के विचार और चित्र)
…..श्री नागर की फेसबुक वॉल से साभार